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ज़िन्दगी के रंग देखने के बाद घर के रोज-रोज के लड़ाई झगड़े से तंग आया भिक्कू अशांत था, परिवार बड़ा हो चूका था। भिक्कू भी पोते पोतियों का हो चूका था, मगर संस्कार का वो बीज वो अपनी संतानों में नहीं बो पाया जिसकी वो उम्मीद करता था। बुढ़ापा आ चूका था, शारीर जवाब देने लगा था, मगर फिर भी रोजाना 3 किलोमीटर घूम आता था। दिन में घर के एक कोने में पड़े पड़े उस से अपनी संतानों के रोज रोज के झगडे देखे नहीं जाते थे।
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भिक्कू पूरी तरह अशांत हो चूका था, अपने मरने के दिन गिनने लगा था। एक दिन उसके पास उसका पुराना मित्र रामलाल आता है, रामलाल को भिक्कू गले लगा फूट फूट कर रोने लगता है। रामलाल भी काफी बुढा हो चला था चलने फिरने लायक नहीं रहा था बड़ी मुश्किल से भिक्कू से मिलने आया था, जब चलता था तो लगता था जैसे हड्डीयों का बीमा कराकर चल रहा हो।
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उस दिन भिक्कू बड़ा खुश था उस से उसका मित्र रामलाल जो मिलने आया था, दोनों मित्र सारा दिन एक साथ रहे, शाम हो चली थी रामलाल भी अपने घर की और चलने को उतावला हो चला था। भिक्कू उसकी मन की पीड़ा समझ चूका था, उसने भी बड़े प्यार से अपने मित्र को विदाई दी पर भिक्कू को कहा पता था ये विदाई आखरी थी।
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अगले दिन रामलाल अपनी टूटी खाट पर मृत पड़ा था, मगर उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी। उस दिन भिक्कू ने अपना कमरा अन्दर से बंद कर लिया और बाहर निकला तो अपनी जरूरत का सामान बैग में लिए खड़ा था। वो मुस्कुरा रहा था आज भिक्कू दुखी नहीं था, देखने वाले दंग थे समझ नहीं पा रहे थे की रामलाल भिक्कू को जाते जाते ऐसा क्या दे गया जो वो इतना बदल गया।
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भिक्कू घर से निकल कर चल पड़ा, घर वालो ने और गाँव ने भिक्कू को रोकने की भरपूर कोशिश करी पर वो ना रुका। पूछने पर कहाँ जा रहा है भिक्कू ? तो भिक्कू मुस्कुराता हुआ एक ही जवाब देता “शांति की खोज में”। भिक्कू घर से तो निकल पड़ा पर समझ नहीं पा रहा था की जाये तो जाये कहाँ पहाड़ो में जाये या नदी किनारे। येही सोचता हुआ भिक्कू भटकती राहों पर आगे बढ़ चलता हैं।
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भिक्कू पहले पहाड़ो की खुबसूरत वादियों में अपना डेरा डाल लेता हैं, कुछ दिन शांति से वहां रहा मगर धीरे धीरे उसे वो वादियाँ खाने को आने लगी, भिक्कू एक अजीब सा अकेलापन महसूस करने लगा था। वो वहां से निकल एक नदी किनारे जा अपनी नयी कुटिया बना लेता है मगर नदी किनारे उस बहते जल से कुछ समय के लिए तो भिक्कू का मन शांत होता है मगर अगले ही पल वो फिर बेचैन हो उठता हैं, भिक्कू समझ नहीं पता की पहाड़ों और नदियाँ किनारें भी उसे शांति क्यों नहीं मिली।
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एक दिन भिक्कू भी चल बसता है, मगर उसके चेहरे पर रामलाल की तरह मुस्कान नहीं थी उसके माथे में तोडियां पड़ी थी। भिक्कू मरकर भी समझ नहीं पाया की जिस शांति की खोज में तू दिन रात एक कर भटक रहा था उन भटकती राहों में, उन वादियों में, उन नदियों के किनारों में वो नहीं बल्कि वो तो तेरे इस भटकते मन के कोने में छिप कर बैठी हैं।
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